मैं जब भी भारत जाती हूँ लगभग हर जगह बातों का एक विषय जरुर निकल आता है. वैसे उसे विषय से अधिक ताना कहना ज्यादा उचित होगा. वह यह कि "अरे वहां तो स्कूलों में पढाई ही कहाँ होती है.बच्चों का भविष्य बर्बाद कर रहे हो. यहाँ देखो कितना पढ़ते हैं बच्चे". पहले पहल उनकी इस बात पर मुझे गुस्सा आता था, मैं बहस भी करती थी और समझाने की कोशिश भी करती थी.पर अब मुझे हंसी आती है और मैं कह देती हूँ "हाँ वहां एकदम मस्ती है कुछ पढाई नहीं होती". बात तो हालाँकि मैं हंसी में उड़ा देती हूँ परन्तु दिमाग में सवाल कुलबुलाते रहते हैं कि आखिर किस पढाई पर गर्व करते हैं हम ? किस मुगालते में रहते हैं ? और वहां से निकलना क्यों नहीं चाहते ?
हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा की जो दशा है वह किसी से छुपी नहीं. सरकारी स्कूलों में बच्चों को क्या शिक्षा मिलती, हम सब जानते हैं. अत: उन स्कूलों और उस शिक्षा को जाने देते हैं. चलिए बात करते हैं एक तथाकथित उन्नत्ति की ओर अग्रसर भारत के आधुनिक स्कूलों की, उनकी शिक्षा व्यवस्था की .बेशक उनके नाम आधुनिक रखे जा रहे हैं, सुविधाओं के नाम पर भी सभी आधुनिक सुविधाएँ दी जा रही हैं परन्तु क्या उस शिक्षा व्यवस्था में तनिक भी बदलाव आया है जो लार्ड मैकाले के समय से चली आ रही है? आज भी हम बाबू छापने वाली मशीन से ही अफसर और वैज्ञानिक छापने की जुगत में हैं.मशीन नई जरुर बन गई हैं मगर हैं वैसी ही. और मजेदार बात यह कि हम सब यह जानते हैं , पर व्यवस्था को बदलते नहीं.हम ढूंढने निकलें तो शायद ऊंगलियों पर भी ऐसे लोग नहीं गिने जा सकेंगे जो यह कहें कि, शिक्षा ने मुझे वह दिया जो मैं पाना चाहता था .हमारे देश में एक व्यक्ति पढता कुछ और है ,बनता कुछ और है , और बनना कुछ और ही चाहता है.आखिर क्या औचित्य है ऐसी शिक्षा का ? क्या गुणवत्ता है ऐसे शिक्षण संस्थानों की जो फैक्टरियों की तरह छात्र तैयार करती हैं .(कुछ संस्थान के नाम अपवाद स्वरुप जरुर लिए जा सकते हैं).
भारत में हर कोई यह कहता मिल जाता है भारत से बाहर तो शिक्षा का कोई स्तर ही नहीं है बिना यह जाने कि आखिर शिक्षा आप कहते किसे हैं? पश्चिमी देशों में सरकारी हो या फिर कोई निजी स्कूल सभी के लिए शिक्षा का स्तर और मौके बराबर होते हैं. यहाँ पढ़ाई किताबी नहीं बल्कि व्यावहारिक होती है. जब जिस उम्र में जिस विषय की जरुरत होती है वह पढाया नहीं जाता बल्कि सिखाया जाता है और इस तरह कि वह महज एक विषय नहीं बल्कि ज्ञान बने.
प्रारंभिक शिक्षा है क्या??/ मूल रूप से उसका मकसद है एक भावी व्यक्तित्व का निर्माण करना, एक बच्चे को यह समझने में सहायता करना कि वह क्या करने में सक्षम है और क्या करना चाहता है.उसकी योग्यता को पहचान कर उसे आगे के जीवन में बढ़ने में मदद करना .
और बिलकुल इसी मकसद पर चलते हैं पश्चिमी देशों के स्कूल .बच्चे को पहली क्लास से १० वीं क्लास तक वह सब कुछ सिखाया जाता है जिसकी एक सम्माननीय नागरिक को अपना जीवन जीने के लिए आवश्यकता होती है.और उसे भरपूर मौके दिए जाते हैं अपनी योग्यता को परखने के, अपनी रूचि के अनुसार आगे का पथ निर्धारित करने के.और इसीलिए इन स्कूलों से निकल कर ये बच्चे जो भी करते हैं पूरी लगन और ख़ुशी से करते हैं.और अपने विषय में पारंगत होते हैं.आखिर क्या जरुरी है जब कि कोई एक गायक बनना चाहे तो उसे ज़बरदस्ती इतिहास भूगोल पढ़ाया जाये या मुश्किल गणित के सवाल हल करने को कहा जाये.
पर नहीं हमारे यहाँ तो सब हरफनमौला होते हैं पढ़ते हैं विज्ञान और नौकरी करते हैं बेंक की.जाते हैं आर्ट कॉलेज और काम मिलता है कंप्यूटर सेंटर में.बच्चे को रूचि हो ना हो वह विज्ञान ही पढ़ेगा हाँ पर स्कूल के बाद दुनिया भर की अतिरिक्त क्लास भी करेगा.हर विषय में माहिर बनाने के चक्कर में एक ज़हीन और मेहनत कश बेचारे बच्चे की असली योग्यता पता नहीं कहाँ छिप जाती है और नतीजा होता है. वही असंतुष्टी अपने जीवन से, अपनी आत्मा से और समझौता अपने काम से और अपने फ़र्ज़ से.
उस पर तुर्रा यह कि हमारे यहाँ बहुत पढाई होती है.अभी हाल के ही भारत प्रवास में एक शिक्षक महोदय मिल गए लगे झाडने शिक्षा का बखान .".वहां पढता ही कौन है हमारे यहाँ हर दूसरा बच्चा इंजिनियर है .और बाहर जाकर यही लोग काम करते हैं"...हाँ जी होगा जरुर. हर मोहल्ले में इंजीनियरिंग कॉलेज खुले हैं दनादन इंजिनियर गढे जा रहे हैं पर उनमें से वाकई इंजिनियर कितने बनते हैं?और कितने इंजीनियरिंग का कार्य करते हैं पढने के बाद ?कोई बैंक में होता है तो कोई कॉल सेंटर में भी.यहाँ तक कि इंजीयरिंग पढने के बाद लोग गायक, लेखक तक बन जाते हैं.कहाँ काम आई तथाकथित उच्च शिक्षा ??.अगर पश्चिमी देशों में भारत से कर्मचारी बुलाये जाते हैं तो इसका कारण यह नहीं कि यहाँ कि शिक्षा व्यवस्था खराब है, बल्कि इसका कारण है यहाँ के लोगों की मानसिकता और सामाजिक व्यवस्था जिसके तहत हर किसी का इंजिनियर और डॉक्टर बनना आवश्यक नहीं होता. प्रारम्भिक शिक्षा के बाद हर एक के सामने उसके रूचि के अनगिनत विकल्प होते हैं.और फिर जो अपनी रूचि और योग्यता से इन क्षेत्रों में जाता है वो पूरी इमानदारी से अपना कर्तव्य निभाता है.और शायद यही वजह है कि भारत थोक के भाव में आई टी प्रोफेशनल निर्यात तो करता है परन्तु एक भी बिल गेट या स्टीव जोब्स नहीं बना पाता.
हाँ ये भी सच है कि बाहर निजी संस्थानों में भारत से बहुत इंजिनियर काम करने आते हैं पर कितने लोग यहाँ आकर वही नौकरी पाते हैं ?भारत से किसी कंपनी के बल पर यहाँ पहुँच तो जाते हैं परन्तु यहाँ आकर उन्हें किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है ये वही जानते हैं. और जो लोग नौकरी कर भी रहे हैं, तो गिरती गुणवत्ता से भारतीय कर्मचारियों की छवि लगातार गिर रही है और यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब इन इंजीनियरों की हालत भी किसी बंधवा मजदूर से अधिक ना होगी.आधे अधूरे और अधकचरे ज्ञान से नियुक्त ये कर्मचारी जाहिर है किसी भी मापदंडों पर खरे नहीं उतर पाते कोई कार्य समय पर पूरा नहीं होता,समय और पैसे की हानि अलग. ऐसे में इन्हें कई बार अजीब सी मानसिक यातनाओं से भी गुजरना पड़ता है .अभी हाल ही में एक उदाहरण मेरे सामने आया है .एक बहुत ही प्रतिष्ठित भारतीय कम्पनी के कुछ भारतीय कर्मचारियों ने कार्यावधि के बाद कार्य करने से इंकार कर दिया.तो दूसरे पक्ष ने उनके सामने कह दिया कि तुम भारत के रहने वाले हो तुम्हें तो चौबीस घंटे काम करना चाहिए.बात बहुत कडवी थी और अपमान जनक भी परन्तु वे कर्मचारी कड़वा घूँट पीने को मजबूर थे.क्योंकि वह कार्य अपनी कार्य अवधि से बहुत बिलम्बित पहले ही हो चुका था अत: इसे समाप्त किया जाना उनकी जिम्मेदारी थी.जो कि उन्हें भारतीय शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सिखाया ही नहीं गया था. .उस कार्य के लिए वह कर्मचारी खासतौर पर प्रशिक्षित ही नहीं थे. बस काम चल रहा था.हम आज भी उसी मानसिकता में जीते हैं कि एक मुनीम का बच्चा अपने पिता के साथ गल्ले पर बैठ कर उँगलियों में लाखों का हिसाब करना सीख जाता है उसी तरह इंजिनियर तो है ही ना, देख देख कर सब कर ही लेगा. गलती उनकी भी नहीं है हमारी शिक्षा व्यवस्था उन्हें हरफनमौला जो बनाती है.. जिस उम्र में उन्हें समाज और अपने काम के प्रति जिम्मेदारी और इमानदारी सिखाई जानी चाहिए थी उस उम्र में उन्हें ए बी से डी रटाई जा रही थी.जब वक़्त उन्हें उनकी योग्यता और रूचि के अनुसार मार्ग चुनने में सहायता करने का था अब उन्हें एक फेक्ट्री से शिक्षण संस्थान में धकेल दिया गया था.
कितने भी ताने मार लें हम बाहरी शिक्षा को और कितना ही सीना फुला लें अपनी शिक्षा को लेकर. परन्तु सत्य यही है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पढ़ाती तो है पर शिक्षित नहीं करती. और इसके परिणाम गंभीर होते जा रहे हैं.अपने गौरवशाली अतीत की दुहाई कब तक देते रहेंगे हम ? इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय दिमाग में शायद सबसे तेज़ होते हैं और मेहनत करने में उनका जबाब नहीं परन्तु...अगर हमें पाना है फिर से वही सम्मान विश्व गुरु होने का ..तो बदलना होगा अपना रवैया और बदलनी होगी १०० साल पुरानी शिक्षा व्यवस्था.
बिल्कुल सही ।
ReplyDeleteNeelam Sharma सत्य यही है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पढ़ाती तो है पर शिक्षित नहीं करती. its nt only d education system bt also d business mentality of people dat makes them to think more abt money dan values.....padhai sirf paisa kamane k liye karo...!
ReplyDeleteबस इस लिए ही हमने सिर्फ़ शिक्षा ही ली ... डिग्री लेने गए ही नहीं ... आज भी आगरा विश्वविद्यालय में पड़ी है ... ;-)
ReplyDeleteमुझे तुलनात्मक अनुभव नहीं है अतएव ज्यादा कुछ तो नहीं कह सकता। अवश्य, इतना कहना चाहूंगा कि 'सा विद्या या विमुक्तये' का आदर्श आज भी मनुष्यता के लिए अप्रासंगिक नहीं है। लार्ड मैकाले द्वारा भारत की प्राचीन गुरुकुल प्रणाली को जो क्षति पहुंचायी गयी उससे चेत कर हमें उबरने का प्रयास करना चाहिए। निश्चय है तब हमें बिल गेट या स्टीव जोब्स से भी अधिक उच्चादर्श प्राप्त हो सकेंगे।
ReplyDeleteअच्छा गहन लेख. सहमत.
ReplyDeleteविश्वगुरु कहलाने वाले भारत को गारत करने का मैकाले का प्रयास सफ़ल रहा। शिक्षा के नाम पर कोरा कागजी ज्ञान बांटा जा रहा है। जिसके पास डिग्री नहीं वह अनपढ है चाहे वह अपनी विद्या में प्रवीण हो।
ReplyDeleteवह दिन भी कभी आएगा जब योग्यता को आगे लाया जाएगा। तब डिग्रियाँ पीछे धरी रह जाएगें।
सुंदर आलेख के लिए आभार
दिल सहमत होने को तैयार नहीं था लेकिन दिमाग कह रहा है की अक्षरशः सत्य आख्यान है आपके इस आलेख में. मुझे अपने पड़ोस के एक सज्जन याद आये जिनका बड़ा बेटा रक्षा सेवा में जाना चाहता था लेकिन उनकी माताजी को बेटे को अभियंता बनाना था . विचारा किसी प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से किसी तकनीकी महाविद्यालय से प्रवेश के काबिल तो था नहीं तो कही कोदो देकर ( अरे वही डोनेसन) उसका प्रवेश करा दिया .चार वर्षीय पाठ्यक्रम पूरा करने में उसे ६ साल लगे उसके बाद एक बीमा बेचने वाली कंपनी में नौकर है . अब उसकी जैसी तैसी की हुई पढाई का क्या प्रयोग .है वहाँ .लेकिन उसकी माताजी खुश है की उनका बेटा इंजिनियर बन गया . जब ऐसे अभिभावक हो तो शिक्षा का स्तर जैसा भी हो समाज का भला नहीं हो सकता . शानदार चिंतन ( दार्शनिक वाला नहीं ) .
ReplyDeleteमेरी असहमति दर्ज की जाए
ReplyDeleteडिग्री और शिक्षा
इस विषय पर ध्यान देने की बात हैं की अगर किसी को जीविका चलानी हैं तो किसी ना किसी डिग्री की आवश्यकता होती ही हैं { डिग्री से अर्थ हैं उस विषय में जिस में किसी को नौकरी करनी हैं ना केवल पारंगत होना अपितु उस पारंगत होने का प्रमाण पत्र भी होना } डिग्री महज एक प्रमाण पत्र हैं उस विषय में आप प्रवीण हैं इसका .
शिक्षित होना बिना डिग्री के भी हो सकता हैं लेकिन जहां डिग्री धारी खड़े होते हैं वहाँ केवल शिक्षित को नौकरी शायद ही मिले .
शिक्षा से आप के सोचने का नजरिया बदलता हैं
आप का ये कहना गलत हैं की हमारे यहाँ शिक्षा का स्तर नीचा हैं और डिग्री आराम से मिल जाती हैं . हमारे यहाँ डिग्री होल्डर इस लिये ज्यादा हैं क्युकी हमारे यहाँ शिक्षा को महत्व दिया जाता हैं . हमारे यहाँ शुरू से गुरुकुल की परम्परा रही हैं जहां शिक्षा और स्वाबलंबन की शिक्षा साथ साथ दी जाती हैं .
खुद ओबामा ने कहा हैं की भारत के ऊँचे शिक्षा स्तर का मुकबला करना अमरीकियों का मकसद हो नहीं तो वो पिछड़ जायेगे .
ब्रिटिश में भी शिक्षा के साथ डिग्री का बेहद महत्व हैं नर्स डॉक्टर इंजिनियर वहाँ इस लिये इंडिया से बुलाये जाते हैं क्युकी उनको वहाँ के नागरिक से आधी तनखा दे कर भी काम चल जाता हैं . ये भारतियों की नाकाबलियत नहीं हैं उनका शोषण जरुर हैं .
एक designer हूँ मै भारत मे रह कर नेट के जरिये आर्ट वर्क बना कर भेजती हूँ . जिस आर्ट वर्क का मुजे वो ३०० डॉलर देते हैं उसका वहाँ १००० डॉलर देना होता हैं इस लिये वो मुझे काम देते हैं . लेकिन जो काम मै वहाँ के लिये करती हूँ वैसे काम का यहाँ मुझे २० डॉलर भी नहीं मिलता करना यहाँ उस तरह का काम होता ही नहीं हैं तो मिलेगा कहा से . मेरी डिग्री उन्होंने कभी मांगी नहीं क्युकी मेरा काम उनको पसंद आया लेकिन वही अगर मुझे वो नौकरी देगे तो डिग्री की मांग होंगी .
हमारे इंजिनियर , डॉक्टर या क़ोई भी जिसमे बढई , प्लुम्बेर इत्यादि भी शामिल केवल और केवल पैसा कमाने के लिये वहाँ जाते हैं क्युकी यहाँ उतना पैसा नहीं हैं १००० की जगह ३०० ही सही .
अपमान इस लिये होता हैं क्युकी वहाँ के देशवासी इनको अपना नौकर से ज्यादा नहीं समझते और वो अपमान यहाँ भी होता हैं जहां भी प्राइवेट नौकरी हैं .
हमारी शिक्षा पद्धति मे क़ोई गड़बड़ नहीं हैं बस जन संख्या ज्यादा हैं और रोजी रोटी की मारामारी रहती हैं
गुरुकुल से लेकर आज तक डिग्री और शिक्षा दोनों मे हमारे देशवासी आगे ही हैं
फोर्ब्स की लिस्ट उठा कर देखिये आप को खुद एहसास होगा
विचारणीय लेख !
ReplyDeleteआभार!
योग्यता का महत्व कम नहीं हैं योग्यता की परख करने के लिये टाइम पीरियड की जरुरत होती हैं वही डिग्री आप की योग्यता का प्रमाण पत्र हैं
ReplyDeleteप्रस्तुति इक सुन्दर दिखी, ले आया इस मंच |
ReplyDeleteबाँच टिप्पणी कीजिये, प्यारे पाठक पञ्च ||
cahrchamanch.blogspot.com
शिखा जी आज का आलेख सधा हुआ नहीं लगा। तुलनात्मक अध्ययन नहीं है। इसलिए हमें पता नहीं वहाँ की शिक्षा व्यवस्था क्या है? यह बिल्कुल ठीक है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में ज्ञान नहीं है। इतना हमें पता है कि वहाँ सामाजिक संरचना अलग है इसलिए प्रत्येक युवा अपने शौक पूरे कर सकता है लेकिन यहाँ के युवा को नौकरी के लिए ही दक्ष होना पड़ता है। उसे ढेर सारा पैसा कमाना ही है, अपने परिवार के संचालन के लिए। भारत में कल तक केवल मुठ्ठी भर लोग नौकरी करते थे और शेष लोग अपना स्वयं का धंधा। लेकिन जैसे-जैसे कारखाने आए, या अंग्रेजियत आयी वैसे-वैसे नौकरों की संख्या बढ़ती चले गयी। अब एक नौकर कैसे ऐसी पढ़ाई करेगा जिसमें उसके मन की शिक्षा हो। उसके माता-पिता यही चाहेंगे कि पहले वह कहीं नोकरी लायक शिक्षा प्राप्त कर ले। शौक का क्या है, बाद में कर लेना। बहुत सारे पहलू है इस विषय के, आप किसी एक पर केन्द्रित करो तो कुछ समझ आए।
ReplyDeleteसही है...आपने बिलकुल वैसा ही लिखा है जैसा chat में कहा था। :-)
ReplyDeleteरचना जी ! डिग्री का महत्व नहीं है ...ऐसा तो मैंने कहा ही नहीं ...नौकरी चाहिए तो डिग्री भी चाहिए.
ReplyDeleteहाँ आपके इस कथन से भी मेरी सहमति है-
डिग्री से अर्थ हैं उस विषय में जिस में किसी को नौकरी करनी हैं ना केवल पारंगत होना अपितु उस पारंगत होने का प्रमाण पत्र भी होना } डिग्री महज एक प्रमाण पत्र हैं उस विषय में आप प्रवीण हैं इसका.
पर दुर्भाग्य वश ऐसा ही भारत में नहीं होता.
डिग्री बांटना तो छोडिये ,बल्कि बेचीं और खरीदी तक जाती हैं...आपमें किसी विषय की योग्यता नहीं ...कोई बात नहीं पैसे दीजिए ...बहुत से संस्थान हैं जो आपको उसी विषय की डिग्री उपलब्ध करा देंगे.
अजीत जी ! बिलकुल. आपका कहना ठीक है.कि भारतीय हालात में वहाँ के युवा मजबूर हैं, आर्थिक बंदिशे हैं. और भी बहुत से कारण हैं ..मैंने यहाँ बात कारणों की नहीं की.कारण जो भी हों ..बात शिक्षा व्यवस्था की है.शिक्षा को लेकर सोच की है
ReplyDeleteशिखा जी!
ReplyDeleteसबसे पहले धन्यवाद इस यथार्थपरक पोस्ट के लिए.. सीधा मुद्दे पर आ जाऊं दो चार बातें कहकर वापस जाऊं...
हमारी प्रवीणता और योग्यता का अर्थ मात्र सूचना का भंडारण है.. जिसके पास जितनी अधिक सूचनाएं हैं वह स्वयं को ज्ञानी कहता है या दुनिया उसे ज्ञानी कहती है.. सूचना और ज्ञान दोनों दो अलग बाते हैं..
प्रवीण है तो इसका प्रमाण-पत्र भी होना चाहिए, यह बात उल्टी अधिक है सीधी कम.. अर्थात जिसके पास डिग्री है उसे प्रवीण मान लिया जाता है.. अब वो डिग्री इम्तिहान में दस सवाल पढकर जाने और संयोग से उन्हीं सवालों के पूछे जाने के कारण भी हो सकती है.. बजाये विषय पढ़ने के और उसका पूरा ज्ञान प्राप्त करने के व्यक्ति सिर्फ इसमें लगा रहता है कि इसे मत पढ़ो यह पिछले साल पूछा जा चुका है..
अगर डिग्री, प्रमाण-पत्र या सर्टिफिकेट ही प्रवीणता की सनद है तो फिर मैरेज-सर्टिफिकेट अटूट विवाह की गारंटी होने चाहिए...
हम बड़े खुश होते हैं जब पता चलता है कि फलां डॉक्टर सिविल सर्विसेज में टॉप कर गया.. तो फिर डॉक्टरी क्यों पढ़ी... जो उनसे निचले पायदान पर रहा होगा डॉक्टरी की प्रवेश-परीक्षा में बेचारा वंचित रह गया होगा डॉक्टर बनने से...
ऐसे अनेक उदाहरण हैं.. अस्वस्थता में भी बहुत लिख गया!!
सलिल जी ! आपने सही सार समझा पोस्ट का ..
ReplyDeleteआभारी हूँ.
तीखे तेवर .....वास्तविक स्थिति और हमारा अहम् ....सब शामिल हो गया .....सोचता हूँ .....तो पाता हूँ कि आपने जले पर नमक छिड़क दिया .....नहीं - नहीं ऐसा नहीं है ....सच कहा और मैंने भी सच ही पढ़ा - देखा भी है यह सब महसूस भी किया है ....अब क्या कहना शेष रह गया है ....????
ReplyDeleteye bahut bekar baat hai ki ek doctor agar IAS ban raha hai to us se uske doctory ki degree bekar ho rahi hai...!! Salil bhaiya!!
ReplyDeletejahan tak meree samajh hai, beshak ham bharitya abhi bhi pichhre hain, par hamaree sikshha vyavastha ab bahut behtareen hai ... bas jarurat hai ki ham iss sikhsha vyavastha ko aur jayda aarthik roop se majboot kar saken...!
शिखा जी !
ReplyDeleteआपके आलेख को ध्यान पूर्वक पढ़ते हुये मन इतना आंदोलित हुआ कि टिप्पणी एक आलेख के रूप में परिवर्तित हो गयी किन्तु मेरा दुर्भाग्य कुछ भी save नहीं हो पाया और उससे पहले ही ब्लोग्गेर के कमेन्ट बाक्स ने स्वमेव रिफ्रेश कर लिया।
मन खिन्न हो गया अब यहां पर दूसरी बार टिप्पणी बाद में लिखूंगा। तब तक विषय पर एक सार्थक चर्चा स्पन्दन पर उठाने के लिये बधाई
आप सही कह रही हैं । हमें तो लगता है कि यहाँ छात्र अच्छे होते हैं वहां शिक्षक । इसीलिए यहाँ के छात्र वहां जाकर अव्वल रहते हैं ।
ReplyDeleteआप पोस्ट लिखते है तब हम जैसो की दुकान चलती है इस लिए आपकी पोस्ट की खबर हमने ली है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - जानकारी ही बचाव है ... - ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteव्यवस्था में सुधार तो जरूरी होता ही है, लेकिन हमने अपनी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से भी कम हासिल नहीं किया है.
ReplyDeleteshikha ji shiksha mujhe bhi yahan ki hi achchi lagti hai bachche kab sab aajata hai pata hi nahi chalta hai .apne desh me ratna bhaut padta hai .
ReplyDeletepr hamare bharat me jo uchh shiksha hai na us mulya hai .yadi vo kisi achchhi uni.... se ki gai ho aaj jagah jagah paese de kar pravesh lene ki pratha si chal chuki hai .
jo galat hai .
isse shiksha ka str girta hai .
achchhe vishya pr charcha ki hai aap ne aapki soch ke kya kahne
rachana
Ye sach hai ki,chand school chhodke hamare yahan bachhon kee creativity pe mano rok laga dee jatee hai.
ReplyDeleteश्रीकांत जी को ब्लॉग पर टिप्पणी करने में कुछ परेशानी आ रही है अत:उनकी टिप्पणी मैल से प्राप्त हुई -
ReplyDeleteआपके आलेख को ध्यान पूर्वक पढ़ा और उसपर रचना जी असहमति के साथ ही कुमार आशीष जी द्वारा सरस्वती शिशुमंदिर प्राथमिक शिक्षण संस्थानों का ध्येय वाक्य ’सा विद्या या विमुक्तये ’ भी पढ़ा। सरस्वती शिशु मंदिर क प्रांगण से ही कभी मैने शिक्षण आरम्भ किया था किन्तु इस पल किसी विद्यालय विशेष की शिक्षण प्रणाली पर चर्चा न करके आपके आलेख पर वापस आता हूं।
रचना जी द्वारा असहमति की टिप्पणी में मुझे आपके आलेख के सम्र्थन के कई बिन्दु परिलक्षित होते हैं मात्र इसके कि डिग्री कीनियुक्ति के समय प्रमाण पत्र के रूप में नियोक्ता के समय की बचत कर देती है। किन्तु वह स्वयं भी मानती हैं कि जीवन में वासतविक सफलता के लिये किसी भी विषय में पारंगत होना ही आवश्यक है। नियोक्ता भी यही चाहता है।
यहां पर मेरा वयक्तिगत विचार भी यही है कि हमारी सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली निरन्तर आर्थिक असुर्क्षा की भावना से ग्रसित नागरिक को वास्तविक मानव विकास से उत्तरोत्तर विमुख करती जा रही है और परिणाम है शिक्षा संस्थानों का व्यवसायीकृत होकर फैक्ट्रियों में परिवर्तित हो जाना
एक विचार बहुधा मेरे मस्तिष्क में कौंधता रहता है कि क्यों न अखिल भारतीय स्तर पर एक मुक्त राष्ट्रीय परीक्षा प्रतिवर्ष आयोजित होनी चाहिये जिसमें किसी भी अयु वर्ग से लेकर किसी भी भाषा में सभी को बैठने की अनुमति हो। इस परीक्षा का परिणाम प्रत्येक नागरिक की प्रतिभात्मक स्तर पर राष्ट्रीय मापदण्ड हो। इसी परीक्षा से देश को अपनी वास्तविक मानवीय बौद्धिक सम्पदा का आकलन भी होगा तथा नियोक्ताओं को इस प्रमाण पत्र से किसी भी कार्य के लिये समुचित विषय में पारंगत व्यक्ति को नियुक्त करने में भी सुविधा होगी।
सबसे बड़ा लाभ जो मेरे संज्ञान में आता है वह है येन केन प्रकारेण चाकू की नोक पर ही सही किसी भी तरह डिग्री प्राप्त कर लेने की अन्धी और अनैतिक मानसिकता की प्रवृत्ति से भी नयी पौध (पीढ़ी) को संक्रमित होने से भी बचाया जा सकेगा।
किन्तु यह दिवा स्वप्न जैसा ही है। क्या स्वार्थ के चलते ऐसा संभव होगा ??
अस्तु स्पन्दन पर इस आलेख के माध्यम से महत्वपूर्ण चर्चा हेतु एक सार्थक विषय उठाने के लिये बधाई - आभार
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
बिल्कुल सही...
ReplyDeleteAapki bato se sehmat hoon Shikha ji...
ReplyDeleteBadlav aa to raha hai, halanki bahut hi dheere-dheere...
कहते हैं कातिल क़त्ल की जगह पर दुबारा लौटता है.. इसलिए आया तो देखा कि एक सवाल मेरी ओर भी उछाला गया है... तो जवाब देना उचित समझा...
ReplyDeleteअनुज मुकेश कुमार सिन्हा जी ने मेरी डॉक्टर से आई.ए.एस. होने वाली बात पर सवाल उठाया है.. इस विषय पर मैं क्या कहूँ.. गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जब व्यक्ति अपना स्वधर्म छोडकर परधर्म अपनाने लगता है, तो वह अपने पथ से चूक जाता है.. गुलाब लाख कोशिश करे, कमल नहीं बन सकता.. इस चेष्टा में वह कमल तो बन नहीं पाता पूर्णतः गुलाब भी नहीं बन पाता जो उसका स्वधर्म था.. इसलिए हे अर्जुन! तेरी परवरिश एक क्षत्रिय के रूप में युद्ध करने को हुयी है और तू सन्यासियों सी बातें मत कर और युद्ध की ओर प्रेरित हो!!
कोई सज्जन यह बताने का कष्ट करेंगे कि जो डॉक्टर आई.ए.एस. बन जाते हैं, क्या वे डॉक्टरी की प्रैक्टिस कर सकते हैं.. जैसा की मुकेश जी ने कहा है???????
अब कोई बता सकता है कि डॉ. श्रीराम लागू का स्वधर्म डॉक्टरी का है या अदाकारी का, और डॉ. माया अलग का???
एक लघुशंका हा, कृपया समाधान करें!!!
एक अच्छा विचारणीय लेख....
ReplyDeleteडिग्री उपलब्द्ध होना बहुत आसान है , कितने विश्वविद्यालय और ग्रुप ऑफ़ कालेज खुले ही सिर्फ इसलिए हैं कि डिग्री उपलब्द्ध करा सकें ...
शिक्षा से कोई ख़ास वास्ता नहीं !
शुभकामनायें आपको !
शिक्षा का व्यावहारिक और समय के प्रति संवेदनशील होना बहुत जरूरी है , जिसकी कमी हमारे यहाँ है , हालाकि बदलाव भी हुआ है पर पर्याप्त नहीं है । पूरे देश के परिप्रेक्ष्य में देखने पर कह सकते हैं कि अभी बहुत कुछ होना बाकी है,आधारभूत समस्याएँ हैं , संसाधनों की भी कमी है और बहुत कुछ बदलना है ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख ...
सलिल जी एगो बात हमहू के जोड़े के बा आपके लघुशंका में वो इ की एगो हमरा संगी है उ हमरे साथ इंजीनियरिंग करके बाद में भारतीय आरक्षी सेवा में भरती हो गए . अब उनसे इंजीनियरिंग त नहीं याद है लेकिन सोसल इंजीनियरिंग में प्रयोग होखे वाला बहुत सारा शबद औरी सूत्र याद है . धन बा हमार सरकार..इ लघुशंका कही दीर्घशंका में त नाही बदल गइल?
ReplyDeleteबहुत सही आलेख है।
ReplyDeleteमुद्दा भी विचारणीय है।
कई डॉक्टर इंजिनियर, IIM आदि के डीग्रीधरी को सिविल सर्विस परीक्षा देकर नौकरी करते देखा है। और वहां क्या करना होता है पिछले २३ सालों से देख रहा हूं।
जन्तु विज्ञान से स्नातकोत्तर, फिर गंगा प्रदूषण पर शोध और अंत में इतिहास विषय को लेकर (जिसकी डिग्री नही थी) सिविल सर्विस ... और यहां आकर, क़ानून, प्रबंधन और विधि सम्मत काम। कहीं कोई डिग्री से प्राप्त ज्ञान का प्रयोग नहीं।
शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाया जाना बहुत ज़रूरी है।
पढ़ाई छोड़ने के (मतलब डीग्री ग्रहण कर लेने के) तीस साल बाद मन किया कि कुछ जानकारी हासिल की जाए। एक डिग्री कोर्स ज्वायन कर लिया। कल से उसकी परीक्ष शुरु है। कई दिनों पहले ही सोच लिया था कि मुझे परीक्षा नहीं देनी है। जो शिक्षा मुझे चाहिए थी, मैंने उस कोर्स के द्वारा हासिल कर ली। डिग्री रहे न रहे क्या फ़र्क़ पड़ता है।
शिखा जी ! दुखती राग पर हाथ नहीं रखा है आपने बल्कि जोर से दबा दिया है ...दर्द बढ़ गया है. कुछ कहने से पहले सलिल भाई को व्याधि मुक्त होने के लिए ईश्वर से प्रार्थना.
ReplyDeleteभारत एक ऐसा देश है जहाँ उच्चतम शिखर और निम्नतम गर्त बहुतायत से मिलते हैं है. हमारे यहाँ बेहतर शिक्षण संस्थान हैं पर बहुत कम, हमारे यहाँ बदतर शिक्षण संस्थान भी हैं पर बहुत अधिक संख्या में. UGC और राज्य सरकारों से मान्यताप्राप्त अधिकाँश विश्वविद्यालय केवल दुकानें खोल कर बैठे हैं. कुछ वर्ष पूर्व मेडिकल काउन्सिल से मान्यता लेने का गोपनीय सूत्र उजागर हुआ था. विज्ञापनों पर लाखों रुपये पानी की तरह बहाने वाले निजी विश्विद्यालय अपने शिक्षकों को दस हज़ार रुपये से अधिक नहीं देना चाहते , परिणामतः जिसे कहीं काम नहीं मिलता वे उनके यहाँ शिक्षण कार्य कर रहे हैं. दाखिले के समय बारातियों जैसी खातिरदारी करने वाले ये विश्वविद्यालय साल भर की फीस एकमुश्त लेने और सारे मूल प्रमाणपत्र जमा कर लेने के बाद तमीज से बात भी नहीं करते. उनसे पढाई की बात करो तो लगता है जैसे कि उनसे क़र्ज़ मांगने गए हैं दोबारा बोला तो शायद अभी पीटने लगेंगे. इनके खिलाफ हमारे देश में कहीं कोई सुनवाई नहीं होती. हम भुक्त भोगी हैं.
शिखा जी जिस बात को कहना चाहती हैं उसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया. उनका अभिप्राय है कि हमें बच्चों की अभिरुचि और क्षमता के अनुरूप उनके विषयों का चयन करना चाहिए. मैं इस बात से सौ प्रतिशत सहमत हूँ. अनावश्यक विषय पढ़ाने का क्या औचित्य ? इन सारी विसंगतियों के बाद भी यदि हम कुछ बेहतर या उल्लेखनीय कर पा रहे हैं तो उसका कारण हमारी जुझारू प्रवृत्ति है न कि हमारे शिक्षण संस्थान ? अभी कुछ ही दिन पहले हमारे प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेजेस पर नवीनता और शोधपरक न होने का आरोप लगाया गया था. हमारी शिक्षण पद्यति पूरी तरह दोषपूर्ण है नित नए प्रयोगों ने तो इसका और भी सत्यानाश क़र दिया है. सलिल भाई की बात नोट की जाय ...हमारी शिक्षा सूचनापरक है ज्ञानपरक नहीं . क्वान्टिटी निरंतर बढ़ रही है पर क्वालिटी घट रही है. हमारे शिक्षण संस्थान हमें सूचनाएं दे रहे हैं ज्ञान नहीं. यदि ज्ञान दे रहे होते तो हम बेईमान और रिश्वतखोर नहीं होते.
आज कई सरकारी मेडिकल कॉलेज ऐसे हैं जहाँ विद्यार्थियों को डिसेक्शन के लिए एक शव नहीं मिल पाता.यह अलग बात है कि वे किसी भी तरह एनोटॉमी समझ क़र/ रट क़र अपनी गाड़ी पार कर ले जाते हैं. सबसे बुरी स्थिति निजी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों की है. इन्होने अपनी जागीरें खोल रखी हैं जिसके लिए उन्हें अपनी रियाया को लूटने का सरकारी लायसेंस भी प्राप्त है. मेरा सभी लोगों से निवेदन है कि अपने बच्चों को भारत के निजी संस्थानों में प्रवेश दिलाने से पहले वहाँ पहले से अध्ययनरत विद्यार्थियों का इंटरव्यू अवश्य लेलें. इसमें कोई शक नहीं कि हमारे बच्चे अन्य देशों की तुलना में अधिक परिश्रमी हैं पर हमारी व्यवस्था उतनी ही लचर है.
वाह! सुन्दर गरमागरम बहस जारी है.
ReplyDeleteवैसे आपकी काफी बातों से मैं सहमत हूँ.
मेहनत से लिखी गई पोस्ट के लिए आभार,शिखा जी.
बहुत ही उम्दा पोस्ट दीदी...लोगों को पढनी चाहिए ऐसी बातें और समझनी चाहिए...आपने एकदम सही बात कहा है...जब कोई इंसान अगर संगीत में अपना कैरिअर बनाना चाहे तो वो क्यों फिजिक्स-केमेस्ट्री पढ़े?
ReplyDeleteआजकल तो भारत में इंजीनियरिंग की पढाई ऐसे हो रही है जैसे पहले ग्रैज्युएसन की पढाई होती थी...और अधिकांश लोग अपने फिल्ड में जॉब कर भी नहीं रहे हैं...
आपने जो लिखा है-
"हमारे देश में एक व्यक्ति पढता कुछ और है ,बनता कुछ और है , और बनना कुछ और ही चाहता है." - इस बात को तो मैं एकदम अच्छे से समझ सकता हूँ.....क्यूंकि वैसा ही कुछ मेरे साथ हुआ(पढ़ा कुछ और जॉब किसी और चीज़ की लगी) और अब अंततः मैंने निर्णय लिया की जो मैंने पढाई की उसी में काम भी करना है..
पूर्णतया सहमत। पढ़ाई का कितना प्रतिशत जीवन मां उपयोग में आता है, यह शोध का विषय है।
ReplyDeleteहमारे महान देश में ’गाड़ी चलाना जानना’ और ’ड्राइविंग लाइसेंस’ हासिल करना दो जुदा विषय हैं,बस यही फ़र्क है शिक्षा और डिग्री में ।
ReplyDeleteआपके विचारों से पूर्णतया सहमत !
शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है।
ReplyDeleteलोग कामयाबी के पीछे भाग रहे हैं काबिल होने पर कोई ध्यान नही दे रहा है.....
विचारणीय विषय।
हाँ-हाँ सलिल भैया जी ! रउआ आयीं ..बस्तर में प्रेक्टिस करे से केहू ना रोकी. हईजा डॉक्टर लोगन के कुल ज़रुरत बा....हम लोग मिलके एगो "पराईबेट अनलिमिटेड कंपनी" खोलब जा ...आजकल डाक्टरियो के धंधा में कुल लूटमार करे के छूट मिलल बा. बाकी एतना दिन मं दबइया के नमवां त ना भुला गइलीं ?
ReplyDeleteतीसरी बार आया हूँ..लोग शक न करने लगें कि कमबख्त बीमारी का बहाना बनाकर बार-बार टिप्पणी करने आ जाता है ताकि सिम्पैथी भी बटोर सके..
ReplyDeleteमगर अभी तो डॉक्टर कौशलेन्द्र मिश्र जी के मुख से अपने मन की बात सुनकर बल मिला..
सुन्दर विमर्श...ज्ञानवर्धन हुआ...लेख और उस आयी प्रतिक्रियाएं मानो कह रही हों कि तीर तो निशाने पे ही लगा है. बहुत खूब.
ReplyDeleteपंकज झा.
बहुत ही गहन विश्लेष्णात्मक आलेख |
ReplyDeleteइस पोस्ट का महत्व इसलिये हैं क्युकी सोचने की जरुरत हैं . जो जानकारी हैं उसको बांटने का मन हैं
ReplyDeleteजो लोग ये कह रहे हैं की भारत में डिग्री खरीदी जाती हैं गलत नहीं हैं पर क्या वो जानते हैं की ये चलन विदेशो में यहाँ से ज्यादा हैं . आप नेट पर जाकर गूगल करिये गेट डिग्री तो आप को हजारो ऐसी उनिवार्सिटी दिखेगी जो अमेरिका और ब्रिटेन के छोटे शहरो में बसी हैं और दूर शिक्षा के माध्यम से आप को किसी भी डिग्री को उपलब्ध करा देगी बस पैसा होना चाहिये .
इसके अलावा बहुत सी प्राइवेट बेहतर शिक्षा का "भरोसा " दे कर भारत से लोगो को लुभा कर वहाँ बुलाती हैं और बाद में वहाँ पहुचने पर पता चलता हैं की वहाँ पढायी की क़ोई व्यवस्था नहीं हैं हा डिग्री मिलती हैं .
जो डॉक्टर की पढाई यहाँ कम में होती हैं वही वहाँ ३ गुना ज्यादा फीस में होती हैं क्युकी उसके बाद लोगो को लगता हैं वहाँ सैलिरी भी ३ गुना मिलेगी .
पिछले एक साल में ना जाने कितनी फेक उनिवार्सिटी का पर्दाफाश हुआ हैं ज़रा गूगल कर के देखे .
फरक इतना हैं की अभी भी आम भारतीये को विदेशी दंद फंद का पता नहीं हैं वो केवल अपने , अपने लोगो बेईमान समझता हैं .
असली फरक हैं न्याय व्यवस्था का , वहाँ के कानून सख्त हैं पर केवल वहाँ के नागरिक इस का फायदा उठा सकते हैं भारतीये नागरिक है ही दोयम दर्जे के दूसरी जगह .
अब बात कर ते है की जो डॉक्टर हैं वो अगर आ ई अस बन जाते हैं तो किसी और का नुक्सान हो जाता हैं और वो अपनी शिक्षा और डिग्री का फायदा नहीं लेते हैं
इस से ज्यादा भ्रमित करने वाली बात हो ही नहीं सकती हैं
आ ई अस में आने के बाद आप जिस विषय में पारंगत है आप को उस विषय से सम्बंधित विभाग के मंत्री के नीचे काम करना होता हैं . स्वस्थ्य मंत्रालय में काम देखने के लिये डॉक्टर से बेहतर कौन हो सकता हैं ??? और क्युकी हमारे यहाँ मंत्रियों के लिये क़ोई डिग्री का प्रावधान नहीं हैं इस लिये उनके नीचे काम करने वाले डिग्री होल्डर हो तो कुछ तो व्यवस्था ठीक होगी .
जिसके पास कानून की डिग्री नहीं होगी उसको तो किसी अदालत में अपनी बात कहने का भी अधिकार नहीं हैं चाहे वो कानून की शिक्षा में कितना भी पारंगत क्यूँ ना हो .
शिखा जी आप जिस शिक्षा की बात कर रही हैं वो शायद किताबी शिक्षा नहीं हैं केवल जीने की और आत्म सम्मान से जीने की शिक्षा हैं , नैतिकता की शिक्षा जो सही हैं किताबी ज्ञान से डिग्री से ये नहीं आता हैं लेकिन { मजाक में ले } मोरल साइंस की भी डिग्री दी जाती हैं जो पादरी , नन , पंडित इत्यादि लेते हैं .
नैतिकता , जीवन का संघर्ष और ईमानदारी व्यक्तिगत होते हैं और इसको माँ पिता भी एक लिमिट तक ही अपने बच्चो में स्थापित कर सकते हैं बाद में survival of the fittest and self will power and needs , ही काम आते हैं .
आज अन्ना की टीम में जितने लोग हैं सबके पास डिग्री हैं तभी वो व्यवस्था से डंके की चोट पर लडते हैं , एक अईअस हैं दूसरा आईपीअस ,तीसरा वकील
अन्ना के पास जितनी शिक्षा हैं वो इन तीनो के पास नहीं हैं पर इन तीनो की डिग्री के बिना अन्ना की लड़ाई भी संभव नहीं हैं
bilkul sateek baat kahi shikha ji....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आलेख. हमारी शिक्षा नीति में परिवर्तन की आवश्यकता है. वैसे कुछ निजी (DAV) पाठशालाओं में परिवर्तन की लहर दिखाई भी पड़ रही है.
ReplyDeleteबढ़िया विषय और बढ़िया चर्चा आखिर में आने के अनेक फायदे |
ReplyDeleteविदेश का हमें अनुभव नहीं है अपने देश का बताते है | पतिदेव के पास कई लोग उत्तर भारत और जगहों से आते है नौकरी के लिए पास में बड़ी बड़ी डिग्री होती है स्नातक, स्नाकोत्तर कुछ तो एम् बी ए तक होते है मुंबई वाले तो ये डिग्री देख ही हड़क जाते है कितना पढ़ा लिखा होगा व्यक्ति क्योकि यहाँ भी मैंने देखा है की १२ वि के बाद ही लोग किसी भी विषय में स्नातक करने के बहाए कुछ प्रोफेशनल डिग्री की पढाई करते है स्नाकोत्तर तो बड़ी दूर की बात है जिन्हें उस क्षेत्र में जाना है बस वही करते है जबकि उत्तर भारत में हर कोई १२ वि के बाद स्नातक करने बैठ जाता है किसी भी विषय में बिना आगे का सोचे | जब पतिदेव ऐसे दिशाहीन का इंटरव्यू लेते है तो ज्ञान देख कर दुख हो जाता है कहते है मुंबई का ८ वि का बच्चा भी इनसे ज्यादा जानता है और काम को समझाने का प्रयास करो तो वो भी नहीं समझते है और डिग्री की हेकड़ी इतनी की पूछिये मत | मै खुद उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कुल में पढ़ चुकी हूँ बच्चे में यदि खुद ज्ञान की भूख नहीं है तो समझिये स्कुल आप को कुछ नहीं सिखाने वाला है, कालेज उससे बेहतर नहीं है | बी एच यू से पढ़ी हूँ बढ़ाने वाले क्या शानदार थे पुछीये मत पहली बार जाना की हा ये होते है गुरु किताब से अलग हमेसा विषय पर केन्द्रित रही, पर पढ़ने वाले भी तो होने चाहिए | परीक्षाओ के दो दिन पहले एक क्लास मेट ने परेशान हो कर कहा की अरे मेरे पास नेपाल के राष्ट्रपति और अमेरिका के प्रधानमंत्री के बारे में कोई नोट ही नहीं है तुम्हारे पास हो तो देना मैंने कहा यदि तुम्हे दुनिया में आज की तारीख में कही मिल जाये तो मुझे देना और जब रिजल्ट आया तो उनके नंबर मुझसे ज्यादा थे तब से नम्बरों डिग्री दोनों से भरोषा उठ गया | किन्तु मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरो में अब हालत थोड़े बदले है या ये कहूँ की खुद बच्चो की समझ बदली है ज्ञान ( वैसे जानकारी कहना ज्यादा सही होगा ) का मतलब अब समझ रहे है |
रचना जी की बातो से सहमत हूँ की विदेशो में यहाँ के पढ़े लिखे कर्मचारियों को सस्ता मजदूर से ज्यादा नहीं समझा जाता है और दिग्रिया तो वहा भी बिकती है हमारे यहाँ जिन का मेडिकल में नहीं होता वो सब कई देशो की और कुच कर जाते है इंजिनियर बनाने अब नहीं जाते क्योकि अब तो यहाँ भी इन कालेजो की बाढ़ आ गई जल्द ही बेरोजगार इंजिनियर की बाढ़ आने वाली है |
ये देखिये पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों का क्या हल है
http://mangopeople-anshu.blogspot.com/2010/05/blog-post_15.html
http://mangopeople-anshu.blogspot.com/2010/09/mangopeople.html
डिग्री और शिक्षा का सही तालमेल बैठने वाली शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान दिया जाना चाहिए...
ReplyDeleteसार्थक विश्लेषण!
ऐसी व्यवस्था बने कि जिसमें एक गरीब के बच्चे को भी वैसी ही शिक्षा का अधिकार मिले जैसा कि एक अमीर के बच्चे को मिलता है...हमारी सरकार शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बारे में क्यों नहीं सोचती...टैक्स का पैसा शिक्षा पर लगाया जाए तो वो देश का सच्चा निवेश होगा...गरीबों के बच्चों को अच्छी से अच्छी कोचिंग, किताबें, वर्दी, वज़ीफ़ा दिलाने का सरकार प्रबंध करे जिससे वो अमीरों के बच्चों के शिक्षा के स्तर तक बराबरी पर आ सकें...इस काम में वक्त लगेगा...लेकिन शुरुआत तो कीजिए...बच्चों को उनकी प्रतिभा के अनुसार बहुत छोटी उम्र में ही छांटिए...ज़रूरी नहीं सारे ग्रेजुएट बनें...अगर कोई खेल में अच्छा प्रदर्शन दिखा रहा है तो उसे बेसिक शिक्षा के साथ स्पोर्ट्स की बेहतरीन ट्रेनिंग दिलाई जाए...मायावती जी हो या राहुल गांधी अगर वाकई दलितों या गरीबों के दिल से हितेषी हैं तो समरस समाज बनाने के लिए शिक्षा से ही पहल करें...ऐसी व्यवस्था कीजिए कि अगर किसी के मां-बाप बच्चे की अच्छी शिक्षा का खर्च उठाने में समर्थ नहीं है तो सरकार अपने पैसे से उस बच्चे को पढाए-लिखाए...और जब वो बच्चा कुछ बन जाए तो वो अपनी कमाई से उस पैसे को सरकार को वापस कर दे जो बचपन में उसकी पढ़ाई पर सरकार ने लगाया था...ये पैसा फिर और गरीब बच्चों की पढ़ाई पर काम आएगा...इस तरह जो आने वाली पीढ़ियां आएंगी उनकी सोच वाकई बहुत खुली होगी और उनमें एक दूसरे के लिए नफ़रत नहीं बल्कि सहयोग का भाव होगा...ये भावना होगी कि सबको मिलकर भारत को आगे बढ़ाना है...अब
ReplyDeleteआप सोचिए राजघाटों, शांतिवनों, शक्ति स्थलों, वीर भूमियों या अंबेडकर स्मारकों पर अरबों रुपया बहाना सही है या गरीब चुन्नू या नन्ही की शिक्षा पर पैसा खर्च करना...
जय हिंद...
ज्ञान होना और याद होना दोनों अलग-अलग बातें हैं।
ReplyDeleteयहां भारत में बच्चों को गाय पर निबन्ध के लिये 10पंक्तियां शिक्षक द्वारा दे दी जाती हैं। उन्हें याद करो और इम्तिहान में लिख दो। मुझे इस प्रणाली पर हमेशा रोष आता है। क्यों नहीं बच्चों के सामने गाय खडी कर दें और कहें कि अपने-अपने नोट्स गाय को देखकर लिखो।
बहुत बढिया आलेख, पसन्द आया
प्रणाम स्वीकार करें
ब्लॉग में भी टिप्पणी की कोशिश की पर सफल नहीं हो पाया. 'कनेक्टिंग' वाला गोला घूमता ही रह गया, सो यहाँ लिख रहा हूँ अपने विचार---''शिक्षा व्यवस्था पर मैं अनेक लेख पढ़े हैं, कुछ तो लिखे भी हैं, मगर यह लेख बेहद सुविचारित लगा. इसी तरह के चिंतन की ज़रुरत है. लेख में अपने समय और शिक्षा व्यवस्था को सही तरीके से देखने और समझाने की गहरी कोशिश है. शिखा, इतने सुन्दर लेख के लिए बधाई. इसका उपयोग मैंअपनी पत्रिका या मेरे मार्गदर्शन में निकालने वाली एक अन्य पत्रिका मे ज़रूर करूंगा''.
ReplyDeleteGirish Pankaj
अंशुमाला ! बहुत संतुलित विश्लेषण किया आपने !
ReplyDeleteमैंने भी अपनी पढाई भारत में भी की है और भारत के बाहर भी...मेरे बच्चे भी भारत में भी पढ़े हैं और अब यहाँ भी पढ़ रहे हैं .अत: मैंने अपने और अपने जैसे बहुतों के अनुभव पर ही यह बातें कहीं हैं.
हालाँकि अपने देश के बारे में यह सब सुनते लिखते तकलीफ होती है:) और समस्या भी यही है कि हम प्रेक्टिकल ना होकर सेंटीमेंटल होजाते हैं और कुतर्क करने लगते हैं :).
@खुशदीप ! बहुत अच्छी बात की आपने ..इसी जज्बे की जरुरत है .
हमारे देश में एक व्यक्ति पढता कुछ और है ,बनता कुछ और है , और बनना कुछ और ही चाहता है.आखिर क्या औचित्य है ऐसी शिक्षा का ?
ReplyDelete....बिलकुल सही आंकलन...आज डॉक्टर और इंजिनियर शिक्षा पूरी करने के बाद प्रशासनिक सेवाओं की तरफ भाग रहे हैं..शिक्षा के नाम पर नामी स्कूल पैसा कमाने का व्यापार हो गये हैं.सब कुछ पढाया जाता है केवल इंसान बनने की शिक्षा को छोड़ कर.बहुत सारगर्भित और सटीक आलेख..आभार
बहुत सार्थक और जागृत करनेवाला लेख....
ReplyDeleteबिलकुल सही तथ्यों को ,सही ढंग से विश्लेषित करते हुए प्रस्तुत किया है आपने |
पूर्ण सहमति है आपसे...
ReplyDeleteदुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है...एक शेप और साइज के फैक्टरी मेड प्रोफेशनल/व्यक्तित्व गढ़े जा रहे हैं आज.. कहने को जो कह लें पर हैं सभी टाईवाले कलार्क,ग्लोरिफाई दिहाड़ी मजदूर...
न ही व्यवस्था में कोई गुंजाइश है कि वे बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा के विकाश का प्रयास करे और भयभीत गार्जियन तो बच्चे का लीक से हट कुछ सोचते समझते देख अधमरे हो जाते हैं...
घोर रोष है मुझे अपने देश की भेड़ों की भीड़ बनाती शिक्षण व्यवस्था पर...
बहुत सही मुद्दा उठाया है शिखा आपने. यहां की शिक्षा पद्धति से मैं भी लगभग असंतुष्ट ही हूं.
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपको धन्यवाद कहना चाहूँगा शिखा जी, बहुत ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण विषय पर यथेष्ट संवेदनशीलता के साथ विचार व्यक्त किए हैं आपने । इक्कीसवीं सदी के भारत की बुनियाद-- यदि सरकार शिक्षा को सचमुच इतना अनिवार्य मानती है कि 'सब पढ़ें, सब बढ़ें' जैसा घोष वाक्य हर प्राथमिक स्कूल की दीवारों पर चस्पाँ कर अशिक्षित वर्ग को विद्यालयों की तरफ खींचना चाहती है--यह चिंतनीय है कि शिक्षा के अनुपयुक्त 'मॉडल' पर रखी जा चुकी है। 'बिल गेट्स' और 'स्टीव जॉब्स' के उपजने की ख़ामख़याली सोना और हीरे-मोती उगलने वाली इस देश की धरती से, वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के चलते तो कम से कम नहीं ही की जानी चाहिए। "आज भी हम बाबू छापने वाली मशीन से ही अफसर और वैज्ञानिक छापने की जुगत में हैं" एकदम सही, बेबाक टीका है आपकी। क्या है प्रारम्भिक शिक्षा? आज आप यदि स्कूलों में घूमेंगी तो पाएँगी--लगभग हर दूसरे स्कूल में, ग्राम प्रधान का डंडा है जो हर प्राथमिक स्कूल के शिक्षक-शिक्षण सेवकों के सर पर तना रहता है मिड-डे मील का पैसा ऐंठने के लिए और जो भी छुटपुट मदद-रसद प्राप्त होती है स्कूलों को। सतत अपनी इज्ज़त बचाए रहने की जुगत में लगे रहने वाले गुरुजी क्या खा कर बच्चों को शिक्षित-संस्कारित करें? किताबी शिक्षा तो छोड़िए, व्यावहारिक शिक्षा के नाम पर पहली कक्षाओं में ही औसत बच्चा यह अनुभव कर लेता है की वह एक बेबस और बकवास तंत्र का हिस्सा है। तमाम कागजी कोशिशों के बावजूद 'ड्रॉप-आउट्स' की स्थिति में कोई आशाजनक कमी नहीं आ रही है और नौ साल बाद 'superpower' बनने का जुमला दोहराने और जुगाली करने वाले देश में । जिस-तिस समस्या और अपने नाकारेपन का ठीकरा सरकार और सरकारी महकमा 'बढ़ती आबादी' की टीक पर फोड़ डालते हैं। यह सच है इस देश का कि साठ-सत्तर प्रतिशत आबादी दो जून रोटी का जुगाड़ करने के लिए मानव-मूल्यों के साथ मेहनत-मशक्कत कर बिना उफ किए अपना कार्य-व्यहवार साध रही है, जबकि इसी देश का एक-एक मंत्री हज़ार-लाख करोड़ के घोटाले कर रहा है, अफसर तो अपना दीन-ईमान बेचने को बैठे ही हैं। इस स्थिति में बढ़ती आबादी कहाँ-कौन से रोड़े अटका रही है ? शिक्षा क्या केवल डिग्री के लिए होनी चाहिए, क्या वही है उसका उद्देश्य? शिक्षा तो human population को human resource में बदलने-ढालने का सरलतम और श्रेष्ठ माध्यम है, वहीं पूरी तरह विफल हैं हम, टके भर ज़ुबान हिलती है 'बढ़ती आबादी की वजह से नहीं हो पा रहा है'बड़बड़ाने के लिए। "हमारे देश में एक व्यक्ति पढ़ता कुछ और है, बनता कुछ और है, और बनना कुछ और चाहता है" आपसे पूरी तरह इत्तिफ़ाक़ रखते हुए कहना चाहूँगा कि मानव-संसाधन के समुचित उपयोग कि दृष्टि अभी विकसित नहीं हुई है 'विश्वगुरु' में । कड़वी सच्चाईयों से आहत होना स्वाभाविक है उनका भी जो इनसे भली-भाँति दो-चार होते रहते हैं और उनका भी जो इनके चर्चा में आते ही तिलमिला उठते हैं । मुझे तो बहुत प्रभावित किया आपके तटस्थ-विश्लेषण प्रस्तुतीकरण ने, आगे भी अवश्य लिखें, जिस तंत्र में नगण्य गुणवत्ता हो और बेहिसाब ख़ामियां, उनकी समाज के सामने गिनती तो होनी ही चाहिए। एक बार फिर हार्दिक धन्यवाद प्रभावपूर्ण प्रस्तुति के लिए!
ReplyDeleteशिक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ विचार करने को है ..आज भी शिक्षा बस बाबू ही बनाने पर लगी हुई है ..शिक्षा का एक ही ढांचा पूरे भारत में हर जगह और हर परिवेश में सही नहीं बैठता ..पर हाम आज भी उसी लकीर को पीटे जा रहे हैं ..शिक्षा भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है डिग्री दिलवाने से लेकर डिविज़न कौन सी चाहिए उसके भी एजेंट अपना काम करने में लगे हैं ..खैर मुद्दा ये नहीं है इस लेख का ..
ReplyDeleteवाकयी यहाँ डिग्री तो मिल जाती है पर शिक्षित कितने हुए उससे लोग अनभिग्य ही रह जाते हैं ..जो पढाई होती भी है वो तकनीकि रूप से कितनी काम आती है यह भी सोचने की बात है रूचि के अनुसार बच्चों को तैयार नहीं किया जाता जिससे पढ़ाई उनको बोझ ही लगती है ...बनना कुछ चाहते हैं और बन कुछ और जाते हैं ..और फिर अपनी कुंठा को बच्चों पर थोपते रहते हैं कि हम नहीं बन सके पर तुमको बनना है ..जो बच्चे रट कर उत्तीर्ण हो जाते हैं उनको कितना ज्ञान प्राप्त होता है यह बताने की ज़रूरत नहीं है ....
यहाँ पर जो बच्चा कक्षा में दो साल फेल हो जाता है उसे विद्यालय से निकाल दिया जाता है ..बजाये इसके कि उस पर मेहनत कर उसे आगे बढने की प्रेरणा दी जाए .. बाहर के देशों में कैसी शैक्षणिक नीतियां हैं नहीं जानती ..लेकिन यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सुधार की आवश्यकता है ..कुछ परिवर्तन किये गए हैं लेकिन फिर भी अभी बहुत सुधार की आवश्यकता है .
विचारणीय लेख प्रस्तुत करने के लिए आभार ..
वाह!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आलेख!
बढियां विमर्श -मेरी समझ से जब तक लोगों की रूचि के मुताबिक़ शिक्षा नहीं होगी ऐसा ही चलेगा -मैंने सुना है है रूस में बच्चों के aptitude जाँच के बाद उनका आगे का पाठ्यक्रम निर्धारित होता था ?
ReplyDeletevery nice
ReplyDeleteएक हाथ की सारी उँगलियों को खींच के बराबर करने कि जुगत है हमारा एजुकेशन सिस्टम...और इस तर्क से पूरी तरह सहमत हूँ कि ये बाबू छापने वाली मशीन ही साबित हुआ है...बात ये है कि हमारा सामाजिक ढांचा जो ये दवा करता है कि वो दुनिया में सबसे ज्यादा भावुक पहलू रखता है, वो इस सच्चाई से मुह मोड हुए है जो कि इंसान कि खुशी सबसे ज्यादा ज़रूरी है...मुझे तरस आता है जब कक्षा ५-६ के बच्चों को कोडिंग करते हुए देखता हूँ...कई ऐसे विषय जो मैंने खुद इंजीनियरिंग में पढ़े थे (और मुझे तब भी समझने में मुश्किल लगे थे) आज बच्चों को कक्षा ११-१२ में पढाये जा रहे हैं...और बहुत कम ही ऐसे बच्चे हो सकते हैं जो उसे समझ सकें...बाकी सब तो बस रटने में विश्वास करने लगते हैं...शिक्षा को विश्वस्तरीय बनाने के चक्कर में हम अपने बच्चों के तार्किक और बौद्धिक स्तर को गिरते जा रहे हैं..जो मेधा भारतीयों को बाकियों से अलग करती थी वो ऐसे ही खोटी जा रही हैं जो कि आपके द्वारा भी लिखा गया है कि हमारी गुणवत्ता गिर रही है|
ReplyDeleteआपकी बात से सहमत हूँ ... जितना प्रेशर पढ़ाई को ले काफर भारत में है और जितनी जनरल पढ़ाई भारत में है कहीं और नहीं ... मैं ये नहीं कहता की वहाँ पढ़ाई खराब है पर उसमें सुधार की ज्यादा जरूरत है ... मेकाले की भ्रम जाल से निकलना जरूरी है ...
ReplyDeleteहमारी शिक्षा प्रणाली के तो जो हाल हैं सो हैं ही, जरा सुविधा संपन्न पश्चिम के भी देखिए.यदि इसमें से दस प्रतिशत सुविधाएँ भारतीय छात्रों को दी जातीं तो...
ReplyDeleteFunctional illiteracy is a term used to describe reading and writing skills that are inadequate "to manage daily living and employment tasks that require reading skills beyond a basic level."[1] Functional illiteracy is contrasted with illiteracy in the strict sense, meaning the inability to read or write simple sentences in any language.
Functional illiteracy is imprecisely defined, with different criteria from nation to nation, and study to study.[2] However, a useful distinction can be made between pure illiteracy and functional illiteracy. Purely illiterate persons cannot read or write in any capacity, for all practical purposes. In contrast, functionally illiterate persons can read and possibly write simple sentences with a limited vocabulary, but cannot read or write well enough to deal with the everyday requirements of life in their own society.
For example, an illiterate person may not understand the written words cat or dog, may not recognize the letters of the alphabet, and may be unable to write their own name. In contrast, a functionally illiterate person may well understand these words and more, but cannot read well enough to understand the things they must read in order to get by in their daily life. A functionally illiterate person might be incapable of reading and comprehending job advertisements, past-due notices, newspaper articles, banking paperwork, complex signs and posters, and so on.
ReplyDeleteLinks with poverty and crime
In developed countries, the level of functional literacy of an individual is proportional to his/her income level and risk of committing crime. For example, according to the National Center for Educational Statistics in the United States:[3]:
Over 60% of adults in the US Prison System read at or below the fourth grade level
85% of US juvenile inmates are functionally illiterate
Adult inmates who received educational services while in prison had a 16% chance of returning to prison, as opposed to 70% for those who received no instruction.[not in citation given]
43% of adults at the lowest level of literacy lived below the poverty line, as opposed to 4% of those with the highest levels of literacy.
According to begintoRead.com [4]:
ReplyDeleteTwo-thirds of students who cannot read proficiently by the fourth grade will end up in jail or on welfare.
Three out of four individuals who receive food stamps read on the two lowest levels of literacy.
16-to-19-year-old girls at the poverty line and below with below-average reading skills are 6 times more likely to have out-of-wedlock children than their more literate counterparts.
[edit] Prevalence
In the United States, according to Business magazine, an estimated 15 million functionally illiterate adults held jobs at the beginning of the 21st century. The American Council of Life Insurers reported that 75% of the Fortune 500 companies provide some level of remedial training for their workers. All over the U.S.A. 30 million (14% of adults) are unable to perform simple and everyday literacy activities.[5]
The National Center for Education Statistics provides more detail. Literacy is broken down into three parameters: prose, document, and quantitative literacy. Each parameter has four levels: below basic, basic, intermediate, and proficient. For prose literacy, for example, a below basic level of literacy means that a person can look at a short piece of text to get a small piece of uncomplicated information, while a person who is below basic in quantitative literacy would be able to do simple addition. In the US, 14% of the adult population is at the "below basic" level for prose literacy; 12% are at the "below basic" level for document literacy; and 22% are at that level for quantitative literacy. Only 13% of the population is proficient in these three areas—able to compare viewpoints in two editorials; interpret a table about blood pressure, age, and physical activity; or compute and compare the cost per ounce of food items.
The UK government's Department for Education reported in 2006 that 47% of school children left school at age 16 without having achieved a basic level in functional mathematics, and 42% fail to achieve a basic level of functional English. Every year, 100,000 pupils leave school functionally illiterate in the UK.[6]
ReplyDeleteCountry People lacking
functional literacy
skills
(% aged 16–65)
1994–2003 Notes
Italy 47.0
Mexico 43.2
Ireland 22.6
United Kingdom 21.8
United States 20.0
Belgium 18.4
New Zealand 18.4
Australia 17.0
Switzerland 15.9
Canada 14.6
Germany 14.4
Netherlands 10.5
Finland 10.4
Denmark 9.6
Norway 7.9
Sweden 7.5
घुघूतीबासूती
विषय ऐसा ही कि इस पर लोगों के विचार पढ़ने फिर से आई ...सबने ही अपनी सोच को बखूबी लिखा है ... लेकिन कहीं मुझे ये भी लग रहा है कि कुछ लोग लेख के विषय को छोड़ कर अलग ही मुद्दे पर बात कर रहे हैं ..कितने शिक्षित हैं या कितने अशिक्षित यह विषय नहीं है ..बात है रूचि के अनुरूप विषय में पारंगत होने की .. यहाँ पर शिक्षा प्राप्त करने का कोई अहम् उद्देश्य ले कर नहीं चलता .बच्चे की रूचि किस विषय में है इस पर भी ध्यान नहीं दिया जाता ..कोई संगीत में अपना भविष्य बनाना चाहता है तो उसे भांड , मिरासी कह दिया जाता है ...आज कल एक ceat tyers का विज्ञापन आता है ..जिसमे पिता स्कूटर चला रहा है और पीछे बैठी बेटी कह रही है की पापा आप मेरे मैथ्स के मार्क्स ही हमेशा क्यों पूछते हैं ..मैं तो स्पोर्ट्स में जाउंगी .. लेकिन हम मार पीट कर ऐसे बच्चों को पढने पर ही विवश करते हैं ..इंजीनियरिंग करने के बाद लोग आई ए एस बन जाते हैं ... यानि की वो नहीं जान पाते की हमें क्या करना चाहिए था ///
ReplyDeleteजिस विषय में एम ए किया होता है उसमें भी पारंगत नहीं होते .
जो तकनीकि कोर्स होते भी हैं तो वहाँ इस तरह से पढ़ाई होती है जो व्यावहारिक नहीं होती .. जो सीख कर काम के क्षेत्र में आते हैं उसकी ज़रूरत ही नहीं होती ... उदाहरण के तौर पर बी एड की ट्रेनिंग ही लीजिए
कितने शिक्षक उस तरह से पढते हैं जैसा बी एड में सिखाया जाता है ... यहाँ पर व्यावहारिक शिक्षा देने का स्तर अलग है और व्यवहार में आना अलग बात है ...
टिप्पणियों में दिए गए आंकड़े लेख के मूल विषय से अलग हट कर लगे ..
घुघूती जी ! बहुत शुक्रिया ! इन आंकड़ों के लिए. ये आंकड़ें मैंने भी देखे हैं.और यही नहीं और भी बहुत हैं गूगल में .और आते रहते हैं मैंने भी पहले एक पोस्ट इसपर लिखी थी.और उनके कारण भी लिखे थे.वैसे जो मैं कहना चाहती थी यहाँ काफी लोगों ने कह दिया है फिर भी -
ReplyDeleteबाकी देशो का पता नहीं पर यू एस और यू के का अनुभव मुझे है अत: उसी की बात मैं करुँगी.
यहाँ इस पोस्ट पर बात इस पर नहीं कि कितने शिक्षित हैं.बात थी शिक्षा के प्रति मानसिकता की और शिक्षा व्यवस्था की.माना की यहाँ बहुत से बच्चे उच्च शिक्षा नहीं लेते पर उसका कारण यह नहीं कि उन्हें पढाया नहीं जाता. उसका कारण है कि उन्हें डंडे मार कर रटने को मजबूर नहीं किया जाता,उनपर उनकी क्षमता से अधिक बोझ नहीं डाला जाता .किसी तरह १० ट्यूशन लगा कर और कुंजियों से इम्तिहान में आने वाले गेस पेपर रटा कर परीक्षा पास नहीं कराइ जाती.हर आदमी वही काम करता है जितना कि उसके पास ज्ञान होता है.अगर किसी के पास बेसिक लेवल की शिक्षा नहीं है तो उसे काम भी लेबर का ही मिलता है ...ना कि किसी भी तरह जोड़ तोड़ कर उसे आगे की डिग्री दिलवा दी जाती है.जहाँ तक बात सुविधाओं की है तो यहाँ आकर देखिये जितना पोम्प एंड शो आजकल भारतीय स्कूलों में होता है और जितनी सुविधाएँ वहां के स्कूलों में आजकल दी जा रही हैं यहाँ उसका एक चौथाई भी नहीं होता.
इसलिए डॉ दाराल ने जो टिप्पणी की है "हमें तो लगता है कि यहाँ छात्र अच्छे होते हैं वहां शिक्षक । इसीलिए यहाँ के छात्र वहां जाकर अव्वल रहते हैं ।" काफी हद तक मुझे सही लगती है.
और ये आंकड़े भी हमारे देश में तो कभी शायद बन भी नहीं सकते क्यों कि सर्वे ही इमानदारी से नहीं हो पायेगा :) जैसा कि सलिल जी ने कहा -"जिसके पास डिग्री है उसे प्रवीण मान लिया जाता है.. अब वो डिग्री इम्तिहान में दस सवाल पढकर जाने और संयोग से उन्हीं सवालों के पूछे जाने के कारण भी हो सकती है..फिर किसके पास बेसिक ज्ञान कितना है क्या पता.
हमारे यहाँ डिग्री देने का कराएटेरिया क्या है .एक नमूना यहाँ भी देखिये.
ReplyDelete"फेल छात्रों को डॉक्टर बनाओ...खुशदीप
http://www.deshnama.com/2011/12/blog-post_06.html
kammal ka post hai aaj to.....
ReplyDeletenihsandesh shiksha paddhati mein badlaav zaroori hai. achchha aalekh.
ReplyDeleteshikha ji namaskar, saty kaha aapne par lagta nahi kuchh badlega bhaart me ham pashchim ki buraii apnaate hai achchhaai nahi apanaa paate hai.
ReplyDeleteहम ढूंढने निकलें तो शायद ऊंगलियों पर भी ऐसे लोग नहीं गिने जा सकेंगे जो यह कहें कि, शिक्षा ने मुझे वह दिया जो मैं पाना चाहता था .हमारे देश में एक व्यक्ति पढता कुछ और है ,बनता कुछ और है , और बनना कुछ और ही चाहता है.आखिर क्या औचित्य है ऐसी शिक्षा का ?
ReplyDelete....
शिखा जी दुःख तो इस बात का है कि अभी भी हालात बदलने के कोई आसार दूर दूर तक नहीं नजर आ रहे हैं ...और कहीं कोई उम्मीद है भी तो कम से अकाम आम बच्चे ...एक आम स्टूडेंट की पहुँच से बहुत दूर !
जिस उम्र में उन्हें समाज और अपने काम के प्रति जिम्मेदारी और इमानदारी सिखाई जानी चाहिए थी उस उम्र में उन्हें ए बी से डी रटाई जा रही थी.जब वक़्त उन्हें उनकी योग्यता और रूचि के अनुसार मार्ग चुनने में सहायता करने का था अब उन्हें एक फेक्ट्री से शिक्षण संस्थान में धकेल दिया गया था.
ReplyDeleteकितने भी ताने मार लें हम बाहरी शिक्षा को और कितना ही सीना फुला लें अपनी शिक्षा को लेकर. परन्तु सत्य यही है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पढ़ाती तो है पर शिक्षित नहीं करती. .....
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शिखा जी ...कितना सार्थक लेखन होता है आपका किसी भी विषय को जो भी आप की कलम छूती है ..आप पूरा न्याय करते हो | मुझे गर्व है कि आप हमारे हो, मेरे देश के, मेरे घर के !!
Very interetsing presentation and really i enjoyed it.It is very serious matter.The way our educational institutions are producing millions of illiterate literates its very difficlt to say our destination -all roads are open and no road is open,.Our education is totally devoid of cultural values and ethics
ReplyDeletevery nice
ReplyDeleteRajkumar soni
In India we know the problems but not the solutions because of politics, population problem and greed. We have learnt how to bye pass rules. How to get work with the help of Bribe.
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