
हो वेदकलीन तू मनस्वी या
राज्य स्वामिनी तू स्त्री
रही सदा ही पूजनीय तू
बन करुणा त्याग की देवी
सीता भी तू, अहिल्ल्या भी तू
रंभा भी तू, जगदंबा भी तू
है अगर गार्गी, मैत्रैई तो,
रानी झाँसी, संयोगिता भी तू
फिर क्यों तू आज़ भटक रही?
पुरुष समकक्ष होने को लड़ रही?
खो कर अस्तित्व ही अपना
अधिकार ये कैसा ढूँढ रही?
क्यों सोच तेरी संकीर्ण हुई
क्यों खुद से ही तू जूझ रही
खोकर अपना स्त्रीत्व भला
पाएगी क्या परम पद कोई
सृजनकर्ता तू , ईश्वर की प्रीत,
सौन्दर्य तू इस जग की
फिर पाने को बस एक आडंबर
अपना पद ही क्यों भूल रही?
गरिमा अपनी ना छोड़ यूँ ही
ना कर प्रकृति का अनादर।
चल छोड़ बराबरी की ये ज़िद
बस स्त्री बन पा ले तू आदर
wahhh it's too good di. & practicall also . it"s not a matter of equality, v r not equall at the same time neither infirior nor supirior .only god creat us different. this is the whole thing
ReplyDeletebahut hi accha...
ReplyDeleteshaandar kavita ke liye badhai di.
ReplyDeleteफिर क्यों तू आज़ भटक रही?
पुरुष सम्कश होने को लड़ रही?
खो कर अस्तित्व ही अपना
अधिकार ये कैसा ढूंड रही?
wonderfully penned
पुरानी रचना पर आना अच्छा लगा.
ReplyDeleteअच्छा संदेश
ReplyDeleteशिखा ,
ReplyDeleteबहुत सटीक प्रस्तुति है ..मैं भी इस विषय पर बहुत कुछ लिख चुकी हूँ इसलिए बहुत अपनी सी लगी यह पोस्ट ...
पुरुष समकक्ष होने को लड़ रही?
खो कर अस्तित्व ही अपना
अधिकार ये कैसा ढूँढ रही?
क्यों सोच तेरी संकीर्ण हुई
क्यों खुद से ही तू जूझ रही
स्त्री और पुरुष भिन्न हैं कोई कमतर या ज्यादा नहीं .. समकक्ष होने का मतलब एक सा होना नहीं . ..जब तक नारी अपने ही अस्तित्व के इस पहलू को समझ नहीं पाएगी तबतक यह बराबरी की जंग चलती रहेगी.. सदियों के शोषण ने भुला दिया है जैसे उसे उसका अस्तित्व ..जागृत करती हुई सामयिक रचना ..बधाई
बहुत सुन्दर भाव हैं …………सुन्दर स्त्री चिंतन्।
ReplyDeletebahut hi sahi sandesh ...
ReplyDeleteबहुत सार्थक रचना ..नारी का जो स्थान है वो स्वयं ही नहीं समझ पाती ...और समझे भी कैसे समाज ने इतना उसके अस्तित्त्व को दबा दिया है तो वो सोच ही नहीं पाती की उसकी क्या अहमियत है ....होड़ करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला ..अपनी गरिमा को खुद ही समझना होगा
ReplyDeleteशिखा जी ..शब्दशः सही है आपकी रचना ...
ReplyDeleteस्त्री -पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं ...बराबरी का प्रश्न फिर क्यों ...?
?गरिमा अपनी ना छोड़ यूँ हीना कर प्रकृति का अनादर।चल छोड़ बराबरी की ये ज़िद बस स्त्री बन पा ले तू आदर
sarthak lekhan.
बहुत अच्छा लिखा है आपने.
ReplyDeleteआ.संगीता जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ.
सादर
अत्यंत ही ह्रदय स्पर्शी रचना.यह आपकी लेखनी की गरिमा को बयां करती है.
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